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ग़ज़ल
कहाँ अब दुआओं की बरकतें वो नसीहतें वो हिदायतें
ये मुतालबों का ख़ुलूस है ये ज़रूरतों का सलाम है
बशीर बद्र
ग़ज़ल
तब कहीं कुछ पता चला सिद्क़-ओ-ख़ुलूस-ए-हुस्न का
जब वो निगाहें इश्क़ से बातें बना के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मुझे आप क्यूँ न समझ सके ये ख़ुद अपने दिल ही से पूछिए
मिरी दास्तान-ए-हयात का तो वरक़ वरक़ है खुला हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
न राएगाँ कभी गुज़रा न राएगाँ गुज़रे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना
वहीं काबा सरक आया जबीं हम ने जहाँ रख दी