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ग़ज़ल
चार लोगों के दिखाने को तो अख़्लाक़ से मिल
और कुछ भी नहीं दुनिया में भरम देखते हैं
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
मिलन-सारी भी सीखो जब निगाह-ए-नाज़ पाई है
मिरी जाँ आदमी अख़्लाक़ से तलवार जौहर से
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
मैं अपने साथ रखता हूँ सदा अख़्लाक़ का पारस
इसी पत्थर से मिट्टी छू के मैं सोना बनाता हूँ
अनवर जलालपुरी
ग़ज़ल
ये नींद लेती है 'अख़लाक़' वो ख़िराज कि बस
जो ख़ूब सोते हैं हो कर ख़राब जागते हैं
अख़लाक़ बन्दवी
ग़ज़ल
सब के चेहरों पे हैं अख़्लाक़-ओ-मुरव्वत के नक़ाब
किस को अपना यहाँ और किस को पराया कहिए
फ़ैज़ुल हसन ख़्याल
ग़ज़ल
कई दिनों तक जब अपने कमरे से हम न निकले तो लोग समझे
कभी किसी को बहुत सताते हैं ये उजाले तो लोग समझे
ख़ालिद अख़लाक़
ग़ज़ल
अपना हो कि दुश्मन हो ये 'ताज' न देखा कर
हर शख़्स को ख़ुश हो कर अख़्लाक़ निराला दे