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ग़ज़ल
कहूँ क्या ख़ूबी-ए-औज़ा-ए-अब्ना-ए-ज़माँ 'ग़ालिब'
बदी की उस ने जिस से हम ने की थी बार-हा नेकी
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चाहे अब इस को अपनाओ चाहे नाज़ से ठुकराओ
आज से अपना दख़्ल नहीं है दिल की डोर तुम्हारे हात
जमील मलिक
ग़ज़ल
दो रोज़ जा के आबना-रूयों की बज़्म में
क्या शक्ल हो गई दिल-ए-ख़ाना-ख़राब की
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
फ़ख़्र समझे हैं सब अबना-ए-जहाँ दा'वे को
है अगर 'आर तो इक मुझ ही को है 'आर फ़क़त
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
न खुलता हश्र तक जो फ़र्क़ है अदना-ओ-आ'ला में
न दूर इतना ज़मीं से आसमाँ होता तो क्या होता