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ग़ज़ल
हूरें मश्शाता हैं हर हफ़्त की ख़िदमत है उन्हें
माह आईना है मेहर आईना-दार-ए-आरिज़
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
उस की धुन में हर तरफ़ भागा किया दौड़ा किया
एक बूँद अमृत की ख़ातिर मैं समुंदर पी गया
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
फ़साना-दर-फ़साना फिर रही है ज़िंदगी जब से
किसी ने लिख दिया है ताक़-ए-निस्याँ पर पता अपना