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ग़ज़ल
सैद हूँ रोज़-ए-अज़ल से आलम-ए-असबाब का
और वा रखता हूँ सीने में दरीचा ख़्वाब का
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
मुंतज़िर कौन से मैं आलम-ए-असबाब का हूँ
क्या है अब क़िस्मत-ए-ख़ाशाक नहीं खुलता कुछ
कृष्ण कुमार तूर
ग़ज़ल
ये हम ने भी सुना है आलम-ए-असबाब है दुनिया
यहाँ फिर भी बहुत कुछ बे-सबब होता ही रहता है
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं