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ग़ज़ल
ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में
या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ऐसे भी राज़ हैं 'ख़ुमार' होते नहीं जो आश्कार
अपनी ही मुश्किलें न देख उन की भी बेबसी समझ
ख़ुमार बाराबंकवी
ग़ज़ल
बा-वस्फ़-ए-ज़ब्त-ए-राज़ मोहब्बत है आश्कार
उक़्दा है दिल का अक़्द-ए-सुरय्या कहें जिसे