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ग़ज़ल
न ख़ुशी में अब वो सुरूर है न तो दर्द में वो नशा रहा
लो 'सहाब' बादा-ए-इश्क़ के वो सभी ख़ुमार चले गए
अजय सहाब
ग़ज़ल
ढल गया इश्क़ भी अब हुस्न के साँचे में 'सहाब'
बाज़ी-ए-ज़ीस्त में यूँ मात कहाँ थी पहले
शिव दयाल सहाब
ग़ज़ल
क्या शय अता-ए-ग़म की है कैफ़िय्यत ऐ 'सहाब'
ख़ल्वत हरीम-ए-दिल में है महफ़िल नज़र में है
शिव दयाल सहाब
ग़ज़ल
तिरे होने से दीवारें भी मुझ को थाम रखती थीं
गिराने को खड़े हैं अब सहारा पूछने वाले