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ग़ज़ल
फैली हुई है ज़ुल्फ़ कि छाई हुई घटा
अब्र-ए-सियाह तुम में तुम अब्र-ए-सियाह में
सय्यद नज़ीर हसन सख़ा देहलवी
ग़ज़ल
पर्दा-ए-अब्र-ए-सियह जैसे मह-ए-ताबाँ पर
तेरे 'आरिज़ पे यूँही देखे हैं गेसू हम ने
इशरत जहाँगीरपूरी
ग़ज़ल
सर-ए-मय-ख़ाना आख़िर साया-ए-अब्र-ए-सियह कब तक
सरों पर साया-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रखते तो अच्छा था