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ग़ज़ल
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
'अंजुम' इस शहर को दा'वा था ज़बाँ-दानी का
शा'इर इस शहर में तू एक 'अदद है हद है
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
ग़ज़ल
जिस तरह चाहिए कर लीजिए नुक़्ते का शुमार
मैं अदद कब हूँ कि तादाद में बट जाऊँगा