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ग़ज़ल
सारा आलम तेरा मरकज़ किस को मय-ख़ाना कहें
किस को साक़ी किस को साग़र किस को पैमाना कहें
सदफ लखनवी
ग़ज़ल
उठी उस रू-ए-रौशन से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
सवा नेज़े पे आया आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
निहाल रिज़वी लखनऊवी
ग़ज़ल
कशफ़ी लखनवी
ग़ज़ल
बेगाना-ए-हर-राहत-ओ-ग़म तुम ने किया है
मुझ पर ये करम भी ब-क़सम तुम ने किया है
निहाल रिज़वी लखनऊवी
ग़ज़ल
करते रहें वाबस्ता उन से चाहे जो अफ़्साने लोग
'इश्क़ में रुस्वाई की पर्वा करते हैं कब दीवाने लोग
कशफ़ी लखनवी
ग़ज़ल
मेरा दरमाँ है न का'बे में न बुत-ख़ाने में
रिंद हूँ मुझ को पड़ा रहने दो मय-ख़ाने में
कशफ़ी लखनवी
ग़ज़ल
रब्त-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ अज़ल से सच्चा ये अफ़्साना है
शम्अ' है जिस महफ़िल में रौशन देखो वहीं परवाना है
हैदर हुसैन फ़िज़ा लखनवी
ग़ज़ल
हम उट्ठे तो क्या रौनक़-ए-मय-ख़ाना वही है
साक़ी वही बादा वही पैमाना वही है