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ग़ज़ल
है ज़ात-ए-हक़ जवाहिर ओ अग़राज़ से बरी
तश्बीह क्या है उस को वजूद ओ 'अदम के साथ
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
कमाल सालारपूरी
ग़ज़ल
हम तो अब जाती रुतें हैं हम से ये इग़्माज़ क्यूँ
जुर्म क्या हम ने किया है आप हैं नाराज़ क्यूँ
कृष्ण मोहन
ग़ज़ल
'ज़ौक़ी' गली गली में हैं तकिए फ़रेब के
अग़राज़ की सदा है क़लंदर में कुछ नहीं
ज़ौक़ी मुज़फ्फ़र नगरी
ग़ज़ल
तुझ को अग़राज़-ए-जहाँ से मावरा समझा था मैं
पैकर-ए-इख़्लास तस्वीर-ए-वफ़ा समझा था मैं
अब्दुल रहमान बज़्मी
ग़ज़ल
इज़्तिराब-ए-क़ल्ब है और इश्क़ का आग़ाज़ है
इब्तिदा-ए-नग़्मा मानूस-ए-शिकस्त-ए-साज़ है
मोहम्मद उमर
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले