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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
बरहमन कहता था बरहम शैख़ बोल उट्ठा अहद
हर्फ़ के इक फेर से दोनों में झगड़ा हो गया
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
मिरी झोली में वो लफ़्ज़ों के मोती डाल देता है
सिवाए इस के कुछ माँगूँ तो हँस कर टाल देता है