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ग़ज़ल
फ़ी-ज़माना है यही मस्लहत-ए-अक़्ल-ओ-शुऊर
दिल में ख़्वाहिश कोई उभरे तो दबा ली जाए
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
मैं उस निगह-ए-नाज़ का महकूम हूँ 'सालिक'
वाबस्ता-ए-अहकाम-ए-क़ज़ा हो नहीं सकता
क़ुर्बान अली सालिक बेग
ग़ज़ल
वो जिन के तहत झुक जाता था सर असनाम के आगे
वही भूले हुए अहकाम-ए-यज़्दाँ याद आते हैं
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
मुत्तफ़िक़ 'अक़्ल से पाता हूँ मैं अहकाम-ए-जुनूँ
तू मिरी जान मिरी रूह मिरा सब्र-ओ-सुकूँ
ज़हीन शाह ताजी
ग़ज़ल
कैसे होगी सुर्ख़-रू दुनिया में आख़िर ऐसी क़ौम
जिस ने अहकाम-ए-इलाही को भुला कर रख दिया
ताबिश रिहान
ग़ज़ल
इसी क़दर तो है सरमाया-ए-तजस्सुस-ए-अक़्ल
कि कुछ ज़मीं की ख़बर है कुछ आसमाँ का पता