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ग़ज़ल
क्यों न जहाँ में हो अयाँ ऐब-ओ-हुनर अलग-अलग
देखते हैं ब-चश्म-ए-ग़ौर अहल-ए-नज़र अलग-अलग
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
शायद अब रूदाद-ए-हुनर में ऐसे बाब लिखे जाएँगे
सामने दरिया बहता होगा लोग सराब लिखे जाएँगे
रज़ी अख़्तर शौक़
ग़ज़ल
ग़ैर हों कि अपने हों सब से झुक के मिलता हूँ
ऐ 'हुनर' नहीं आदत मुझ को ख़ुद-सताई की
पूरन सिंह हुनर
ग़ज़ल
'सीमाब' हम में ऐब ओ हुनर ख़ुद हैं बे-हिसाब
हम क्या कसी के ऐब ओ हुनर पर नज़र करें
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
हिसार-ए-हर्फ़-ओ--हुनर तोड़ कर निकल जाऊँ
कहाँ पहुँच के ख़याल अपनी वुसअ'तों का हुआ