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ग़ज़ल
उस के लिए आँखें दर-ए-बे-ख़्वाब में रख दूँ
फिर शब को जला कर उन्हें मेहराब में रख दूँ
जावेद शाहीन
ग़ज़ल
सदा-ए-गुम्बद-बे-दर का ए'तिबार न कर
ये बाज़गश्त है इस को बक़ा है कितनी देर