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ग़ज़ल
कम-अज़-कम ग़ैर रुक कर ख़ैरियत तो पूछ लेते हैं
सुना है अज्नबिय्यत अब शनासाई से बेहतर है
नसीम निकहत
ग़ज़ल
ख़ालिद अख़लाक़
ग़ज़ल
ये कैसी अज्नबिय्यत दी हमें मसरूफ़ वक़्तों ने
कि बचपन की शनासाई पे भी पहरे बिठाए थे