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ग़ज़ल
इशरत-ए-ख़ुल्द के लिए ज़ाहिद-ए-कज-नज़र झुके
मशरब-ए-इश्क़ में तो ये जुर्म है बंदगी नहीं
एहसान दानिश
ग़ज़ल
हम मछेरों से पूछो समुंदर नहीं है ये इफ़रीत है
तुम ने क्या सोच कर साहिलों से बंधी कश्तियाँ खोल दीं
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इशरत-ए-शबाना