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ग़ज़ल
वो मेरा वहम-ए-नज़र था कि तेरा अक्स-ए-जमील
वो कौन था कि जो मंज़र के दरमियाँ गुज़रा
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
पड़ा था अक्स-ए-रू-ए-नाज़नीं अर्सा हुआ उस को
पर अब तक तैरता फिरता है शक्ल-ए-गुल समुंदर में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मिरे लहू में अब इतना भी रंग क्या होता
तराज़-ए-शौक़ में अक्स-ए-रुख़-ए-निगार भी है