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ग़ज़ल
क़लम ले कर जली लिख्या जो कुई भी ना सकें लिखने
लिख्या है वो कधिन मुख तेरे सफ़्हे पर अलक मिसरा
क़ुली क़ुतुब शाह
ग़ज़ल
दोनो आलम से मशरब मस्त-ए-वहदत का है निर्वाला
मिरे एक हाथ में तस्बीह है इक हाथ में प्याला
वली उज़लत
ग़ज़ल
सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है