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ग़ज़ल
लाला-ज़ारों से तो गुल-रंग लिपट आती थी
दिल के वीराने में हर सम्त धुआँ है अब के
अली अब्बास उम्मीद
ग़ज़ल
हैरत-ए-नज़्ज़ारा आख़िर बन गई रानाइयाँ
ख़ाक के ज़र्रों में आती हैं नज़र गुलज़ारियाँ
हकीम अहमद शुजा
ग़ज़ल
रात जब ज़ख़्म के आईने से टकराती है
लौ चराग़ों की शफ़क़ बन के बिखर जाती है