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ग़ज़ल
शाह-ए-दौराँ हज़रत-ए-'हामिद'-अली-ख़ाँ के सिवा
कौन है जिस की तवज्जोह से हो आसानी मुझे
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मुझे पर्वा नहीं होती तो ये सब कुछ कहाँ होता
किधर दौर-ए-बहार आती कहाँ रोज़-ए-ख़िज़ाँ होता