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ग़ज़ल
जैसे सब लिखते रहते हैं ग़ज़लें नज़्में गीत
वैसे लिख लिख कर अम्बार लगा सकता था मैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
जब कि मैं करता हूँ अपना शिकवा-ए-ज़ोफ़-ए-दिमाग़
सर करे है वो हदीस-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबर-बार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो मसीहा न बना हम ने भी ख़्वाहिश नहीं की
अपनी शर्तों पे जिए उस से गुज़ारिश नहीं की