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ग़ज़ल
दोगाना आज़ार है साहब हम जैसों की क़िस्मत में
हम मुहताज रवय्यों के और हम मजबूर अनाओं के
इफ़्तिख़ार हैदर
ग़ज़ल
दूर मुझ से कर दिया कितना अनाओं ने उसे
मेरे शानों पर लगा मेरा ही सर लगता न था
मोहम्मद नईम जावेद नईम
ग़ज़ल
मैं इक पल में बनाता हूँ अनाओं के पहाड़ 'अज़हर'
पर अगले पल ये सारे रेत के टीले नहीं होते
अज़हर कमाल ख़ान
ग़ज़ल
चलो अपनी अनाओं को करें सज्दा ख़ुशी से हम
मगर ख़्वाबों का 'नासिर' जी नगर सारा उजड़ता है