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ग़ज़ल
वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लॉन भी
मगर इस दरीचे से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
पूछे है क्या हलावत-ए-तलख़ाबा-ए-सरिश्क
शर्बत है बाग़-ए-ख़ुल्द-ए-बरीं के अनार का
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
लब उस के पिस्ता ज़क़न सेब आँखें हैं बादाम
खुले जो दाँत हँसी में नज़र अनार आया
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
भूले हैं अपने फ़र्ज़ को ये ख़्वाजगान-ए-हिन्द
हक़ देने में भी करते हैं इंकार आज-कल