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ग़ज़ल
अंदेशा-हा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ तक न आ सके
हम जिस जगह थे लोग वहाँ तक न आ सके
सय्यद मुज़फ़्फ़र अहमद ज़िया
ग़ज़ल
मिरी हर साँस है डूबी हुई ज़हराबा-ए-ग़म में
हज़र ऐ चारागर अंदेशा-हा-ए-फ़िक्र-ए-दरमाँ से
साक़िब रामपुरी
ग़ज़ल
उसे अंदेशा-हा-ए-आबला-पाई 'सहर' क्यों हो
वो जिस के नक़्श-ए-पा से अनगिनत रस्ते निकलते हैं
बदीउज़्ज़माँ सहर
ग़ज़ल
आमद-ए-ख़्वाब-ए-दूर-दराज़ को भालते चेहरे बिखर गए
माह-ओ-साल के झक्कड़ से बस दरवाज़ों तक धूल गई