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ग़ज़ल
अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी
अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मुझ पे फ़र्सूदा अक़ाएद की अजब यलग़ार थी
छोटे छोटे वसवसों को ख़ैर-ओ-शर समझा था मैं
लियाक़त जाफ़री
ग़ज़ल
रहेंगे क़स्र-ए-अक़ाएद न फ़लसफ़ों के महल
जो मैं ने अपनी हक़ीक़त का इंकिशाफ़ किया
सैयद फ़ख़्रुद्दीन बल्ले
ग़ज़ल
कितनी ना-मंज़ूर क़द्रें थीं जो अपनानी पड़ीं
कितने ही प्यारे अक़ाएद थे जो बातिल हो गए
नज़ीर मुज़फ़्फ़रपुरी
ग़ज़ल
यूँ हुआ कि सब अक़ाएद रद्द कर बैठा हूँ मैं
देखना है अब कहाँ शौक़-ए-ख़ुदा ले जाएगा
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
ग़ज़ल
मज़हब के मक़ासिद इक जैसे अफ़्क़ार-ओ-‘अक़ाएद यक-रंगी
इक राह पे चलने वाले सब सदियों की रिफ़ाक़त भूल गए
चन्द्रभान ख़याल
ग़ज़ल
हो क़त्अ नख़्ल-ए-उल्फ़त अगर फिर भी सब्ज़ हो
क्या हो जो फेंके जड़ ही से उस को उखेड़ तू