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ग़ज़ल
इक क़लंदर की तरह वक़्त रहा महव-ए-ख़िराम
उस ने कब ध्यान ''तलब'' शोर-ए-सगाँ पर रक्खा
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
साया-ए-अर्ज़-ओ-तलब को रौंदा उस ने पैरों से
उस की अना का सूरज था उस की पेशानी में
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
मोहम्मद अमीर आज़म क़ुरैशी
ग़ज़ल
अर्ज़-ए-तलब पर उस की चुप से ज़ाहिर है इंकार मगर
शायद वो कुछ सोच रहा हो ऐसा भी हो सकता है
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
ज़बाँ में ताब-ए-गोयाई नहीं अर्ज़-ए-तलब क्या हो
हम उन से सूरत-ए-आईना हैरानी से मिलते हैं