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ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी
फिर भी मोहब्बत सिर्फ़ मुसलसल मिलने की आसानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
मैं इतना सख़्त-जाँ हूँ दम बड़ी मुश्किल से निकलेगा
ज़रा तकलीफ़ बढ़ जाए तो आसानी से मर जाऊँ
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं
कोई दिल-कुशा सदा हो अजमी हो या कि ताज़ी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ले गई साक़ी की नख़वत क़ुल्ज़ुम-आशामी मिरी
मौज-ए-मय की आज रग मीना की गर्दन में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
उमीदों में भी उन की एक शान-ए-बे-नियाज़ी है
हर आसानी को जो दुश्वार हो जाना समझते हैं