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ग़ज़ल
दर पे रहने दे मुझे टाट का पर्दा ही सही
तेरे अस्लाफ़ का छोड़ा हुआ किरदार हूँ मैं
हामिद मुख़्तार हामिद
ग़ज़ल
पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'
ख़ून-ए-असलाफ़ की अज़्मत को जगा लूँ तो चलूँ
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
मिरे अस्लाफ़ सा कोई अमानतदार है 'साबिर'
अगर मसरफ़ हो ज़ाती तो दिया रौशन नहीं मिलता
साबिर शाह साबिर
ग़ज़ल
ये मिरे अस्लाफ़ की मेराज-ए-उल्फ़त थी कि जो
तेज़-रौ दरिया रुका दरिया में रस्ता हो गया
सबीहा फ़रहत संभली
ग़ज़ल
'अफ़्शाँ' कहाँ से लाएँ वो अस्लाफ़ का ख़ुलूस
तारीख़ की किताब ही नीलाम हो गई
अर्जुमंद बानो अफ़्शाँ
ग़ज़ल
भुला दी हैं 'ज़फ़र' अस्लाफ़ की क़द्रें सभी हम ने
इसी बाइ'स तो अब मैदान-ए-महशर याद आता है
सय्यद ज़फ़र काशीपुरी
ग़ज़ल
अपने अस्लाफ़ की अज़्मत से जुड़ा हूँ मैं भी
अपनी तहज़ीब की मुट्ठी में दबा हूँ मैं भी