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ग़ज़ल
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ तकमील-ए-तमन्ना 'शौक़' क्या होती
कि हम ने औरतें पाईं कभी अंधी कभी कानी
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
मैं बिगड़ गया तिरी इक नज़र से वगर्ना मुझ को तो देख कर
ये गली की औरतें बोलतीं इसे देखो कैसा नजीब है
मुआज़ आइज़
ग़ज़ल
अहमद जहाँगीर
ग़ज़ल
पक्के रंगों में रंगी हुई औरतें कितनी नायाब हैं
ये मोहब्बत जो मश्शाक़ रंगरेज़ थी इस को क्या हो गया
मुनीर जाफ़री
ग़ज़ल
उभारें औरतें तुम को दबाएँ औरतें तुम को
गरेबानों में मुँह डालो मुओ तुम अब तो क़ाइल हो