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ग़ज़ल
ज़ब्त सैलाब-ए-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात हो आँखों से अयाँ होती है
साहिर होशियारपुरी
ग़ज़ल
अयाँ कर दी हर इक पर हम ने अपनी दास्तान-ए-दिल
ये किस किस से छुपानी है न तुम समझे न हम समझे
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं
वो जो नज़र से है निहाँ उस का जहाँ है तू कि मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
न किसी पे ज़ख़्म अयाँ कोई न किसी को फ़िक्र रफ़ू की है
न करम है हम पे हबीब का न निगाह हम पे अदू की है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
पाँव दर्ज़ों में टिकाए हुए सर रख़नों में
इस निहाँ-ख़ाने में रह रह के अयाँ रह गए हम
शाहीन अब्बास
ग़ज़ल
چمک تيري عياں بجلي ميں ، آتش ميں ، شرارے ميں
جھلک تيري ہويدا چاند ميں ،سورج ميں ، تارے ميں
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये सोज़-ओ-साज़-ए-निहाँ था वो सोज़-ओ-साज़-ए-अयाँ
विसाल-ओ-हिज्र में बस फ़र्क़ था तो इतना था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हिजाब ओ जल्वे की कशमकश में उठाया उस ने नक़ाब आधा
इधर हुवैदा सहाब आधा उधर अयाँ माहताब आधा
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
जिस तरफ़ जाए नज़र अपना ही जल्वा था अयाँ
जिस्म में हम थे कि वहशी आईना-ख़ाने में था