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ग़ज़ल
क़हक़हे तुम मारते हो वाँ ब-आवाज़-ए-बुलंद
दुश्मनों से याँ छुपा कर हम हैं करते ज़ारियाँ
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
ग़ज़ल
रात दिन नाक़ूस कहते हैं ब-आवाज़-ए-बुलंद
दैर से बेहतर है काबा गर बुतों में तू नहीं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
सुनते हैं ग़ैर से वो बात ब-आवाज़-ए-बुलंद
क्या क़यामत है कि जो हम से इशारात में थी
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
ग़ज़ल
जो ग़ुबार उठता है कहता है ब-आवाज़-ए-बुलंद
सर न इस ख़ाक का ऊँचा हो जो बर्बाद न हो
बेताब अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
वाँ क़ाफ़िला मंज़िल पे भी पहुँचा मगर अब तक
हम करते हैं सहरा में बा-आवाज़-ए-दरा रक़्स
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
दर पे उस पर्दा-नशीं के हो तो बा-सौत-ए-बुलंद
शेर उस वक़्त है 'जुरअत' से पढ़ाने का मज़ा
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
मोहब्बत ख़ुद ही अपनी पर्दा-दार-ए-राज़ होती है
जो दिल पर चोट लगती है वो बे-आवाज़ होती है