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ग़ज़ल
खुले सरों का मुक़द्दर ब-ए-फ़ैज़-ए-जहल-ए-ख़िरद
फ़रेब-ए-साया-ए-अफ़्लाक के सिवा क्या है
हिमायत अली शाएर
ग़ज़ल
गर रोए तो आँखों के सब बाशिंदे बह जाएँगे
हाए शिकस्ता ख़्वाब हमारे इस बस्ती में रहते हैं
प्रबुद्ध सौरभ
ग़ज़ल
ए'राज़-ए-हुस्न-ए-दोस्त है बा-तर्ज़-ए-इल्तिफ़ात
तूफ़ाँ के साथ साथ किनारे नज़र में हैं
इनाम थानवी
ग़ज़ल
लफ़्ज़ तू ने जो कहे हैं वो ही हक़ ऐ मंसूर
कलिमतुल-हक़ को मगर ता-ब-दम-ए-दार न छोड़
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे