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ग़ज़ल
मालिक से और मिट्टी से और माँ से बाग़ी शख़्स
दर्द के हर मीसाक़ से रु-गर्दानी करता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ख़ुद तो बाग़ी हुए हम तुझ से मगर साथ ही साथ
दिल-ए-रुस्वा को तिरे ज़ेर-ए-नगीं रहने दिया
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
साँस लेता हूँ तो चुभती हैं बदन में हड्डियाँ
रूह भी शायद मिरी अब मुझ से बाग़ी हो गई
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
बाग़ी ना-फ़रमान बनी और कभी कलंक का टीका
हक़ की ख़ातिर जब भी किसी उसूल पे अड़ गई बेटी
समीना असलम समीना
ग़ज़ल
बहुत आँसू रुलाये हैं हमें तक़्सीम-ए-गुलशन ने
मुहाजिर वो समझते हैं तो ये बाग़ी बताते हैं
मुजाहिद फ़राज़
ग़ज़ल
अपनी अना का बाग़ी दरिया वस्ल से क्या सरशार हुआ
उस का निशाँ भी हाथ न आया सारा समुंदर छान लिया