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ग़ज़ल
बहार की तुम नई कली हो अभी अभी झूम कर खिली हो
मगर कभी हम से यूँही पूछो कि हसरतों का मज़ार क्या है
बाक़र मेहदी
ग़ज़ल
'बाक़र' मुझे कुछ दाद-ए-सुख़न की नहीं पर्वा
मैं शहर-ए-ख़मोशाँ में हूँ और नग़्मा-सरा हूँ