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ग़ज़ल
ख़ुदा के याद आने का बड़ा अच्छा ज़रीया है
शनासा-ए-करम वो बानी-ए-जौर-ओ-जफ़ा क्यों हो
मुनीर भोपाली
ग़ज़ल
हुए मजरूह बर्ग-ए-गुल इन्हीं ख़ारों से गुलशन के
चमन के पासबाँ ही बानी-ए-जौर-ओ-जफ़ा निकले
ऐश मेरठी
ग़ज़ल
करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना
कि ये मैदान-ए-महशर है न घर उन का न घर अपना
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
बाक़ी नहीं जहान में जौर-ओ-जफ़ा का ज़िक्र
लब पर है हर बशर के फ़क़त कर्बला का ज़िक्र
महवर सिरसिवी
ग़ज़ल
मुदाम जौर-ओ-जफ़ा है तुम्हारी बस्ती में
सितम का बाब खुला है तुम्हारी बस्ती में