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ग़ज़ल
हक़ीक़त खुल गई 'हसरत' तिरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़ कर याद आते हैं
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
है दिल-ए-मसरूर-ए-'हसरत' इक तरब-ज़ार-ए-उमीद
फूँक डाले गर न इस गुलशन को नार-ए-इंतिज़ार