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ग़ज़ल
नुमायाँ हो के दिखला दे कभी उन को जमाल अपना
बहुत मुद्दत से चर्चे हैं तिरे बारीक-बीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
वूहीं अपनी भी है बारीक-तर-अज़-मू गर्दन
तेग़ के साथ यहाँ ज़िक्र-ए-कमर होता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
कमर-ए-यार के मज़कूर को जाने दे मियाँ
तू क़दम इस में न रख राह ये बारीक है दिल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कहीं ख़ुर्शीद भी छुपता है जी बारीक पर्दे में
उठा दो मुँह से पर्दे को बड़ा पर्दा निकाला है