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ग़ज़ल
बल बे-बारीकी कि गोया हर तिरा तार-ए-सुख़न
जंतरी में खिंच के निकला है दहान-ए-तंग से
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
रुमूज़-ए-आशिक़ी को आशिक़ो तुम 'दाग़' से पूछो
कि बारीकी में बारीकी उसी कामिल से निकलेगी
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
रिश्ता-ए-जाँ से भी नाज़ुक है वो बारीकी में
गुल की रग फिर है गुदाज़ उस की कमर कुछ भी नहीं
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा