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ग़ज़ल
कोई फ़रहाद जैसे बे-ज़बाँ को क़त्ल करता है
'यक़ीं' हम वाँ अगर होते तो इक-दो बचन करते
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता