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ग़ज़ल
लाला-ए-गुल ने हमारी ख़ाक पर डाला है शोर
क्या क़यामत है मुओं को भी सताती है बहार
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
बयाबाँ मर्ग है मजनून-ए-ख़ाक-आलूदा-तन किस का
सिए है सोज़न-ए-ख़ार-ए-मुग़ीलाँ तू कफ़न किस का
शाह नसीर
ग़ज़ल
जो तुम नहीं तो बहार-ए-जिनाँ में ख़ाक नहीं
बहुत वसीअ' है दामान-ए-आरज़ू मेरा