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ग़ज़ल
जिस बादल की आस में जोड़े खोल लिए हैं सुहागन ने
वो पर्बत से टकरा कर बरस चुका सहराओं में
बशीर बद्र
ग़ज़ल
तू अपने ही मआल-ए-सोज़-ए-ग़म पर ग़ौर कर पहले
तुझे इस से नहीं कुछ बहस परवाने पे क्या गुज़री
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
मंज़ूर वो क्यों करने लगे दा'वत-ए-'अकबर'
ख़ैर इस से है क्या बहस हम इसरार तो कर लें
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जो हर इक बहस को मज़हब के मिम्बर पर हैं ले आते
दिलों से उन के नफ़रत को हटाना भी चुनौती है
मुकेश झा
ग़ज़ल
ये बहस ओ तकरार छोड़ दे आ ये ज़ोहद का अहद तोड़ दे
रहेगी ऐ मुद्दई-ए-हुरमत शराब-ए-दुनिया हराम कब तक
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
दुनिया की दानिश-गाहों में आज अजब इक बहस छिड़ी
कौन भरोसे के क़ाबिल है आक़िल और सौदाई में