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ग़ज़ल
कहाँ हम भी रग-ओ-पै रखते हैं इंसाफ़ बहत्तर है
न खींचे ताक़त-ए-ख़म्याज़ा तोहमत ना-तवानी की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गर कहना दिल ने मान लिया और रुक बैठा तो बहत्तर है
और चैन न लेने देवेगा तो भेस बदल कर आएँगे हम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
वो भी इंसान है किस किस को नवाज़ेगा 'फ़ुज़ैल'
फूल सी जान के पीछे हैं बहत्तर आशिक़