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ग़ज़ल
तूबा-ए-बहिश्ती है तुम्हारा क़द-ए-रा'ना
हम क्यूँकर कहें सर्व-ए-इरम कह नहीं सकते
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ये हूर-ए-बहिश्ती की तरफ़ से है बुलावा
लब्बैक कि मक़्तल का सिला मेरे लिए है
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
क्या ज़ौक़-ए-इबादत हो उन को जो बस के लबों के शैदा हैं
हलवा-ए-बहिश्ती एक तरफ़ होटल की मिठाई एक तरफ़
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
इन्हें राहों में शैख़-ओ-मुहतसिब हाइल रहे अक्सर
इन्हें राहों में हूरान-ए-बहिश्ती के ख़ियाम आए
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
हैं तुझे देख के हूरान-ए-बहिश्ती बेताब
या तिरे कुश्ता-ए-अंदाज़ा-ओ-अदा को देखा
मिर्ज़ा मायल देहलवी
ग़ज़ल
सूँघती हैं उन्हें ख़ुश हो के बहिश्ती हूरें
सरफ़रोशों के बदन पर हैं जो तलवार के फूल
हाफ़िज़ कर्नाटकी
ग़ज़ल
जाँ-कनी हुस्न-परस्तों को गिराँ क्या गुज़रे
भेस में हूर-ए-बहिश्ती के क़ज़ा आती है
शैख़ अली बख़्श बीमार
ग़ज़ल
सूँघती हैं उन्हें ख़ुश हो के बहिश्ती हूरें
सरफ़रोशों के बदन पर हैं जो तलवार के फूल
हाफ़िज़ कर्नाटकी
ग़ज़ल
एक मफ़रूज़ा तक़द्दुस ख़ुद पे तारी कर रहा हूँ
कोह-ए-इस्याँ से बहिश्ती नहर जारी कर रहा हूँ
खुर्शीद अकबर
ग़ज़ल
परों की अर्ग़वानी छाँव फैलाई थी सर पर
बहिश्ती नहर का पानी मुसाफ़िर को दिया था
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
ये कैसी धूप और पानी में अफ़्ज़ाइश हुई है
बहिश्ती टहनियाँ इस ओढ़नी से झाँकती हैं