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ग़ज़ल
कोई महबूब उस की जान का साइल जो होता है
झुका लेता है 'बहर' आँखें मुरव्वत आ ही जाती है
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
शब-ए-वसलत तो जाते जाते अंधा कर गई मुझ को
तुम अब बहरा करो साहब सुना कर नाम रुख़्सत का