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ग़ज़ल
कोई महबूब उस की जान का साइल जो होता है
झुका लेता है 'बहर' आँखें मुरव्वत आ ही जाती है
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
शब-ए-वसलत तो जाते जाते अंधा कर गई मुझ को
तुम अब बहरा करो साहब सुना कर नाम रुख़्सत का
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
'बहर' अपनी अपनी क़िस्मत है ब-शक्ल-ए-मेहर-ओ-माह
ज़र उसे बख़्शा उसे कासा दिया ख़ैरात का
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
उट्ठो कपड़े बदलो चलो क्या बैठे हो 'बहर' उदास उदास
सैर के दिन हैं फूल खिले हैं जोश पे फ़स्ल-ए-बहारी है