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ग़ज़ल
बैरन रीत बड़ी दुनिया की आँख से जो भी टपका मोती
पलकों ही से उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा
मीराजी
ग़ज़ल
न पूछ उन ख़िर्क़ा-पोशों की इरादत हो तो देख उन को
यद-ए-बैज़ा लिए बैठे हैं अपनी आस्तीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
थोड़ा सा इख़्तिलाफ़ है मर्द-ए-ख़ुदा के साथ