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ग़ज़ल
कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को
दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
ये मिरा वहम है या मुझ को बुलाते हैं वो लोग
कान बजते हैं कि मौज-ए-गुज़राँ बोलती है
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ऐ सेहन-ए-चमन के ज़िंदानी कर जश्न-ए-तरब की तय्यारी
बजते हैं बहारों के कंगन ज़ंजीर की ये आवाज़ नहीं
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
छना छन-छन छना छन-छन ये घुंघरू से जो मन आँगन
तिरी यादों के बजते हैं तो फिर हम रक़्स करते हैं
जीना क़ुरैशी
ग़ज़ल
बजते हुए घुंघरू थे उड़ती हुई तानें थीं
पहले इन्ही गलियों में नग़्मों की दुकानें थीं
क़ैसर-उल जाफ़री
ग़ज़ल
किसी की याद चुपके से चली आती है जब दिल में
कभी घुंघरू से बजते हैं कभी तलवार चलती है