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ग़ज़ल
कहीं और बाँट दे शोहरतें कहीं और बख़्श दे इज़्ज़तें
मिरे पास है मिरा आईना मैं कभी न गर्द-ओ-ग़ुबार लूँ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
मिरे मास्टर न होते जो उलूम-ओ-फ़न में दाना
कभी मौला-बख़्श-साहब का न मैं शिकार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
सौ क़िस्सों से बेहतर है कहानी मिरे दिल की
सुन उस को तू ऐ जान ज़बानी मिरे दिल की
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
अब ख़ाक तो किया है दिल को जला जला कर
करते हो इतनी बातें क्यूँ तुम बना बना कर