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ग़ज़ल
मिरा ग़म था ना-मुकम्मल ग़म-ए-ना-गहाँ से पहले
मिरी ज़ीस्त बे-मज़ा थी तिरे इम्तिहाँ से पहले
जौहर बिलग्रामी
ग़ज़ल
मिज़ाज-ए-हुस्न में कुछ बरहमी मालूम होती है
हिजाब-ए-नूर में बिजली छुपी मालूम होती है
मख़मूर भोपाली
ग़ज़ल
इज्ज़ से और बढ़ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त
अब वो करे इलाज-ए-दोस्त जिस की समझ में आ सके
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
नज़र मिलाई जो उन से तो ऐ 'नियाज़' लगा
मिज़ाज-ए-यार में पहली सी बरहमी न रही
नियाज़ अली नियाज़ क़ैसरी
ग़ज़ल
इमशब मिज़ाज-ए-यार में कुछ बरहमी सी है
गुज़रे हैं बार बार इसी इम्तिहाँ से हम